________________
सारा जीवन गुजार लेने के बाद आज मैं पाता हूँ कि जीवन की उपलब्धि के नाम पर आज मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका दो वाक्यों में भी बयान कर सकू। ___ यूँ कहने को तो लोग बहुत कुछ कहते हैं, मेरे जीवन की उपलब्धियों का बखान करते थकते ही नहीं और मैं भी अबतक उनकी बातों में आता रहा। वे बहलाते रहे और मैं बहलता रहा, गद्गद् होता रहा और अपनी उपलब्धियों को, अपने आपको महान समझता रहा। ठीक उन छोटे-छोटे बालकों की भांति जिनके क्रिया-कलाप न तो किसी भी मायने में विशिष्ट होते हैं और न ही किसी के लिए कोई खास मायने रखते हैं; फिर भी वे जो भी हरकतें करते हैं, हम बड़े लोग उनकी सराहना करते-करते थकते नहीं व उस सराहना से अभिभूत वे बालक अपनी उन बाल सुलभ क्रीड़ाओं को अपनी महान उपलब्धि समझते रहते हैं।
चूँकि जगत उन्हें उपलब्धि मानता है। मात्र इसलिए यदि मेरे क्रियाकलापों को भी उपलब्धियाँ मान लिया जावे तो भी ये उपलब्धियाँ मात्र तात्कालिक ही तो थीं, उनका कोई दीर्घकालिक या त्रैकालिक महत्त्व तो था नहीं। जैसे कि कोई खिलाड़ी खेल खेलता है व जीत जाता है तो वह तबतक ही तो विजेता रहता है, जबतक कि अगली बार कोई अन्य खिलाड़ी न जीत जावे। उसकी वह विजय दीर्घकालिक महत्त्व नहीं रखती; पर यदि विजय प्राप्त करने के लिए कोई अनैतिक आचरण किया गया हो तो उसका प्रतिफल लम्बे समय तक भोगना होता है। यदि मैंने भी छल-कपट कर या उठा-पटक कर तात्कालिक तौर पर कुछ हासिल कर ही लिया तो वह तो तात्कालिक तौर पर अपना छोटा-मोटा प्रभाव उत्पन्न कर नष्ट हो गया, पर कर्मबन्धन की एक अनन्त श्रृंखला जो उत्पन्न हो गई, वह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती है।
अरे वह दिन तो निकल ही जाना था, न सही चिकना-चुपड़ा, रूखासूखा ही सही, खा-पीकर निकल जाता। सोने को मखमली शैय्या न
- अन्तर्द्वन्द/24 -