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________________ व इससे पहले कि मैं अवसाद की स्थिति से उबरकर उसमें सराबोर हो सकूँ कि एक बार फिर पतझड़ आ जाती है, दीवानखाने की महफिल बिखर जाती है। जीवन की रोशनी दीवानखाने से चलकर, शयनकक्ष के रास्ते अन्धकार में विलीन हो जाती है और मैं एक बार फिर करवटें बदलते हुए, रात काटता हुआ भोर का इन्तजार करने लगता हूँ, कोई नई व अनुपम नहीं, वरन् अनगिनत अन्य सुबहों जैसी ही एक और सुबह का, जब एक बार फिर कुछ ही पलों के लिए ही सही, दीवानखाने में रोशनी आवेगी, कलरव बिखरेगा और फिर सबकुछ बिखर जावेगा कुछ ही पलों में एक और लम्बे से दिन भर के लिए, एक और शाम तक के लिए। ऐसी ही अन्य और अनगिनत सांझों की ही तरह, एक और शाम तक के लिए। सभी कहते हैं कि मैंने जीवन सम्पूर्ण जिया है; सम्पूर्ण जीवन ही नहीं, जीवन सम्पूर्णपने जिया है, सबकुछ ही तो भरा-पूरा है, भरा-पूरा घर परिवार, धम-धोकार चलता कारोबार, सत्ता व अधिकार, सब ओर से प्रेम व सम्मान भरा व्यवहार, स्वास्थ्य व परिवार की अनुकूलता, आखिर और क्या चाहिए? पर मुझे तो इस सम्पूर्णता में भी रिक्तता ही नजर आती है । रिकता ही रिक्तता । सब ओर ही तो रीतापन है, कहीं कुछ भी तो नहीं, जिसे जमापूंजी की तरह अगले जीवन में अपने साथ ले जाया जा सके। डेविट-क्रेडिट सब यहीं तो बराबर हो गया, कुछ भी तो नहीं बचा कैपीटल अकाउंट में ट्रान्सफर करने के लिए, तब फिर किसतरह इस जीवन को सम्पूर्ण कहा जा सकता है, परिपूर्ण कहा जा सकता है ? पर नहीं ! मैं तो रीता भी कहाँ हूँ? मैं तो बोझिल हूँ, अत्यन्त ही बोझिल; अनन्त अकृत्य - कृत्यों का बोझ तो लदा है मेरे ऊपर । कौन कहता है कुछ नहीं है कैपीटल अकाउंट में ट्रान्सफर करने के लिए ? कर्जा तो है। मैं निर्धार कहाँ हूँ ? रीता व्यक्ति तो निर्धार होता है, निर्धारता तो आदर्श अवस्था है, पर मैं निर्धार कहाँ हूँ ? मैं तो अत्यन्त बोझिल हैं, अपने पापों से, अपने कर्मों से । अन्तर्द्वन्द / 4
SR No.002294
Book TitleAantardwand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust
Publication Year2011
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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