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उनकी भाषा व कथन शैली आज के पाठकों के लिए अत्यन्त दुरूह बन चली है; परन्तु मनीषियों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि सरलतम समझा व कहा जानेवाला प्रथमानुयोग अब जनसामान्य की पहुँच से परे हो चला है व अब एक बार फिर इसे सरलतम बनाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में कथाक्रम के बीच-बीच में सूत्रात्मक रूप में पिरो दिए गये सिद्धान्त-रत्नों की विस्तार पूर्वक सरल व्याख्या आज युग की आवश्यकता बन चली है।
आज जब आत्मकल्याण के अभिलाषी साधर्मी भाइयों को सदा ही अध्यात्म की सूक्ष्म चर्चाओं, स्वाध्याय व चिन्तन-मनन में रत पाता हूँ तो उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा, सम्मान, वात्सल्य के भाव हृदय में हिलोरें लेने लगते हैं व उनके प्रति अत्यन्त ही विनम्रता पूर्वक एक बात उनसे कहने को मन हो जाता है कि - ___ अध्यात्म वह विज्ञान है, वह वीतराग-विज्ञान है; जो भेदविज्ञान कराता है स्व व पर का, बंध व मोक्ष का, जीव और अजीव का तथा प्रथमानुयोग व चरणानुयोग वह कला है, जो संसारी प्राणी को काजल की कालिख से बचाते हुए, संसाररूपी काजल की कोठरी से बेदाग निकालकर धवल मोक्षमार्ग में स्थापित कर देती है।। __ प्रथमानुयोग में वर्णित शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से संसार के स्वरूप को जानकर, संसार की असारता को पहिचानकर, भक्ति की सार्थकता का अनुभव कर, बारह भावनाओं के चिन्तनपूर्वक अपने आपको संसार से निकालकर मोक्ष में स्थापित कर लेने की उत्कट भावना की उर्वराभूमि में अध्यात्म का बीजारोप मोक्षफल पाने का उपाय है। ___ संसार की निस्सारता का स्पष्ट व निःशंक निर्णय हुए बिना तथा मुक्ति के सम्पूर्ण/अखण्ड आनन्द के स्वरूप का नि:शंक निर्णय हुए बिना संसार से छूटने व मोक्ष पाने का पुरुषार्थ संभव ही नहीं है।
संसार की समस्त परिस्थितियों व अनुभूतियों को एक ही भव में जिया ही नहीं जा सकता है और इसीलिए भुक्त दशाओं की निस्सारता के अहसास के बावजूद अभुक्त काल्पनिक परिस्थितियों में सुख की सुखद परिकल्पना इस जीव को संसार में सुख की मृग-मरीचिका जैसी अनुभूति से विमुख ही नहीं होने देती। तब कोई कैसे संसार से विमुख हो सकता है।
- अन्तर्द्वन्द/ix