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मानव देह पा लेने में, प्रत्यक्ष तौर पर हमारा अपना कोई पुरुषार्थ नहीं है, कोई योगदान नहीं है; पर मानव बनने का पुरुषार्थ हमें स्वयं ही करना होगा ।.
मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तिका में प्रस्तुत किए गए सूत्रात्मक विचारों को विस्तार देकर, उन्हें अपनी वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आकार देकर प्रबुद्ध पाठक अपने जीवन में ढालने का कार्य स्वयं ही कर लेंगे; तथापि मैं जानता हूँ कि यह सबकुछ इतना आसान भी नहीं है। अल्पकथन का विस्तार कर लेना व उसमें से अकथ्य की भी कल्पना करके एक सम्पूर्ण विचार का सृजन कर लेना मात्र तभी सम्भव है, जब विचारों का यह सम्प्रेषण, आदान-प्रदान समानान्तर विचारधाराओं व समकक्ष मानसिकताओं वाले दो व्यक्तियो के बीच हो रहा हो।
यदि नितान्त अपरिचित या विभिन्न मानसिकताओं वाले व्यक्तियों तक अपने विचार पहुँचाने हों तो, विस्तार पूर्वक, सरल भाषा में, प्रतिदिन के जीवन की घटनाओं के माध्यम से, सुरुचिपूर्ण ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
उक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपने इन्हीं विचारों की व्याख्या करते हुए प्रसंगों के माध्यम से, विभिन्न चरित्रों का सहारा लेते हुए, एक उपन्यास शीघ्र ही मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा।
प्रसंगवश अपना मनोगत आपके समक्ष व्यक्त कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
मैंने पाया कि मोक्षाभिलाषियों के परम सौभाग्य से जिनागम में द्रव्यानुयोग से संबंधित आध्यात्मिक ग्रन्थों की टीकाओं की एक समृद्ध व निर्बाध परम्परा आज तक चली आ रही है व आगम तथा अध्यात्म की जटिलतम चर्चाएँ, आज की सरलतम भाषा व सुबोधतम शैली में उपलब्ध हैं, पर प्रथमानुयोग के बारे में ऐसा नहीं है।
प्रथमानुयोग का उद्देश्य होता है - विस्तार रुचिवाले, अपेक्षाकृत कम क्षयोपशमवाले मनुष्यों के लिए सरल भाषा में कथानकों व महापुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से, संसार व मोक्ष के स्वरूप का दिग्दर्शन करके, संसार मार्ग से निकालकर मोक्ष में लाने का प्रयास करना ।
उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु जिन प्रथमानुयोग ग्रंथों की रचना हुई, वे सब तत्कालीन पाठकों के लिए अवश्य ही अत्यन्त सरल व मनोरंजक रहे होंगे; पर -अपनी बात / Viii