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तरंगवती रत्न की गचकारी-सी भागीरथी की जलसतह पर खेलते थे ।
उस समय वहाँ सूर्य के ताप से तप्त एक मदमस्त हाथी नहाने आया। राजलक्ष्मी-जैसे चंचल एवं दुंदुभि जैसा मधुरगभीर शब्द कर रहे उसके कान उसके स्कंध पर पड़ते थे।
वह मेघ की तरह गर्जना करता था, गिरिशिखर-सा स्थूल उसका शरीर था, गंडस्थल मद से लिप्त था और शरीर धूलिस्नात था ।
उसके मदप्रवाह की मनहर महमहती सुगध वनवृक्षों की पुष्पसुगंध से भी बढकर थी । उसके शरीर पर से बहता मदजल ताजा सप्तपर्ण के फूलं की सुगंध जैसा सुगंधित था । उसके वायु के समान वेग से वह मद आसपास की धूलि पर छिडकता आ रहा था । सागर की महिषी गंगा के विशाल तटरूप जघन जैसे तट पर मानो मेखला की रचना करता वह गजराज जहाँ हम थे उस ओर ललित गति से आने लगा ।
गंगा उसके आगमन से जैसे डरती हो इस तरह उत्पन्न जबरदस्त कल्लोलों के बहाने मानो वह दूर खिसकने लगी।
बराबर पानी पीने के बाद वह जब धरा में उतरा और उसमें निमग्न हुआ तब वह सुन्दर लगता था ।
. सूंड से चारों ओर एवं अपनी पीठ पर जल इस प्रकार उछालता, मानो वह मलिन जल स्वच्छ करने की आतुरता से धरा को उलीच डालना चाहता हो ऐसा लगता था ।
हे सखी ! सुंठ को जल से भरकर जब वह जलधारा छोडता था तब वह अग्र भाग से स्रवते निर्झरवाले गिरिशिखर-सा सुन्दर लगता था ।
वह सूंठ जब ऊँची करता तब उसका लाल तालु, जीभ और होंठवाला मुख, शुद्ध अंजन के गिरि में इंगुर की खान की गर्ता जैसा सुन्दर लगता था ।
जल में डुबकियाँ लगाकर, जलप्रवाह को अनेक प्रकार से घंघोलकर जल पीते पीते उसने हम सब पक्षियों को उड़ा दिये । दूर उड जाने पर भी हमारा भय मिटता न था । नहाकर शान्ति का अनुभव करता हाथी अपनी इच्छानुसार पानी से बाहर निकला ।