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३९. मुद्रित पाठ में जो ३९ वां दोहा है वह 'क' प्रति में ३० के बाद दिया गया
है और हमारी दृष्टि से यह सुसंगत है। तुलनीय दोपा. १ (ed. अप्पापरहं पंरपरहं
जो दरिसावइ भेउ. ४०. दोहें में कवि ने परंपरा के अनुसार अपना नाम श्लेष का प्रयोग कर सूचित
किया है । प्रथम चरण में 'आणंदु' शब्द है और दूसरे चरण के अंत में
"तिलक्कु' । ४१. 'आणंदतिलकु जिणाउ' के साथ मिलाइए ‘परमात्मप्रकाश' का निम्नलिखित
चरण सिरि जोइंदु जि णाउ (पप्र. १/८) जैसे जोइंदुने अपना नाम निर्देश किया वैसा 'आणंदा' का कविने किया है । . हम समझते है कि दोनों स्थान पर 'जि' बलवाचक 'जे' (=सं. एव) नहीं है किन्तु उत्तरकालीन आदरवाचक 'जी' का पूर्वरूप है। (जो भट्टोजी दीक्षित आदि में है।) उसका प्राचीन रूप 'जिउ' (=सं. जीव) था जो जो आशीर्वाद
दर्शक था। ४२-४३. अंतिम दो दोहे में गुरुस्तुति की गई है । तुलनिय दो.पा. ? (ed. अप्पापरहं - - परंपरहं जो दरिसावइ भेउ)