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कुछ दोहें पर टिप्पण 'क' और 'ख' प्रति के अनुसार हमें 'आणंदा रे' यह ध्रुवपद चौथे चरण में आरंभ में रखा है। हिंदी में जब शब्द के प्रथम दो अक्षरों में उत्तरोत्तर दीर्घ स्वर (अथवा दूसरा अक्षर सानुस्वार होता है तब प्रथमाक्षर का मूल दीर्घ स्वर हुस्व करने की 'ए' का 'इ' और 'ओ' का 'उ' करने की वृत्ति है। जैसे कि खेलना-खिलाना, बोलना-बुलाना इत्यादि । इसके अनुसार 'आणंदा' के लिये 'अणंदा' प्रतियों में मिलता है। १. गगनमंडलि थिरु होई :- तुलनीय : अंबरि जाहं णिचासु (पप. २, १६३, दो.
१४); जो आयासइ मणु धरइ (पप. २, १६४); अंबरि रामरसि मणु धरिवि (पप. २, १६५). अंबर, गगन रागादि शून्य निर्विकल्प समाधि (पप. ब्रह्मदेवकृत
टीका) ४. तुलनीय दोपा. १६२-१६३ ११. मुद्रित में बिल्कुल उल्य अर्थ किया गया है और पाठ में भी अशुद्धि है । १२. दोनों अन्तिम स्थान पर 'णिभंतु' है वो गलत है। नाहयाजी के पाठ में 'णिचिंतु'
१३. मुद्रित पाठ में बहुत से स्थान पर बहुवचन के बदले एक वचन का पाठ मिलता
२०. चौथा चरण का पाठान्तर है- 'धगधग' N. कम्म पयारु
तीसरे चरणका पाठान्तर S. 'एकु समउ झाणे रहर्हि' . २१. 'पाणि ण देई' २३. चौथे चरण का पाठान्तर N. में 'ते पावहि णिव्वाणु' २८. चौथा चरण का पाठान्तर 'रहइ सहज सुभाउ' ३१. पाठान्तर 'अणुहवइ' के स्थान पर 'पर हणइ' तथा चौथा चरण में 'करइ' ३७. चौथे चरण के पाठान्तर में 'गोपाल हिय समाइ' ऐसा है। आगे के पद में भी . चौथे चरण मे 'साहि गोपाल...' नाहटाजी की प्रति में भी यही पाठान्तर है।