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(१६) संसार का कारण आश्रव है ऐसा तू जान । दूसरा कोई कारण नहीं है । हे जीव, तू ऐसा जान स्वयं आत्मा को देख ।
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संवर भावना
(१७) जो आत्मा और पर अलग-अलग है ऐसा जानता है और यदि पर-भाव का त्याग करता है तब वह संवर है ऐसा तू जान । ऐसा जिनवर ने कहा है ।
(१८) हे जीव, यदि तू संवर करेगा तो शिव-सुख पावेगा । दूसरा सबका तू त्याग कर | जिनवर ऐसा कहते हैं ।
निर्जरा
(१९) जो लोग सहजानन्द में अच्छी तरह स्थित है और जो पर - भाव का ग्रहण नहीं करता है वे सुख और असुख दोनों ही की निर्जरा करते हैं, जिनवर ऐसा कहते हैं ।
लोक स्वभाव
(२०) अपना शरीर और तीन लोक भी अन्य है ऐसा तू समझ । जिनका आधार जो है उस आत्मा को तू देख क्योंकि (इसके बिना) दूसरा कोई नहीं हैं ।
बोधिदुर्लभ
(२१) जो परमात्मा का लाभ है उसको तू दुर्लभ लाभ ही समझ । तेरे लिये और कुछ भी दुर्लभ नही है । ऐसा ज्ञानी साधु कहते हैं 1 धर्म भावना
(२२) यदि तू शिव-सिद्धि चाहता हो तो मन, वचन और काया से विशुद्ध होकर, द्वेष और दोष दोनों को त्याग करके आत्मा का बार-बार ध्यान करना चाहिये ।
(२३) तू राग और द्वेष दोनों का त्याग करके स्वयं आत्मा को देख जिन स्वामी ऐसा कहते हैं कि वह सहज भाव से उत्पन्न होता है ।