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तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को धारण करने
वाली। (१७) अप्रकीर्णप्रसतत्व-- अधिक विस्तार और विषया
न्तर दोष रहित । (१८) अस्वश्लाघान्यनिन्दिता- अपनी प्रशंसा और अन्य
की निन्दा आदि दुर्गुणों से रहित । (१६) आभिजात्य- प्रतिपादन करने वाले विषय के अनु
रूप भूमिका को अनुसरने वाली । (२०) अतिस्निग्धमधुरत्व-- घृतादिक के सदृश अति
स्निग्ध और शर्करादिक के समान मधुरता वाली। (२१) प्रशस्यता-- प्रशंसा की योग्यता धारण करने वाली। (२२) अमर्मवेधिता-- अन्य के मर्म या गोप्य का प्रकाशन
नहीं करने वाली। (२३) प्रौदार्य--प्रकाशन करने लायक अर्थ को शिष्टता
पूर्वक प्रकाशित करने वाली अर्थात् औदार्य गुण
वालो। (२४) धर्मार्थ प्रतिबद्धता-- धर्म और अर्थ सहित । (२५) कारकाद्यविपर्यास-- कर्ता, कर्म, क्रिया, काल,
विभक्ति इत्यादि दोष रहित ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३०