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(५) प्रतिनादविधायिका-- प्रतिध्वनि से युक्त । (६) दक्षिणत्व-- सरलता सहित । (७) उपनीतरागत्व-- मालकोशादि रागों से युक्त । (८) महार्थता- महान् अर्थ वाली। (६) अव्याहतत्व- पूर्वापरविरोध से रहित । (१०) शिष्टत्व- अभिमत शास्त्र की प्रतिपादक तथा
वक्ता की शिष्टता को सूचक । (११) संशयानामसंभवा- जिसके श्रवण से श्रोताओं को
संशय पैदा नहीं हो। (१२) निराकृताऽन्योत्तरत्व- किसी भी प्रकार के दोष से
रहित । अर्थात्- जिस कथन में अंश मात्र भो दोष न हो और एक ही बात पुनः पुनरुक्ति-पुनरावर्तन
रूप में न हो। (१३) हृदयङ्गमता- श्रोताजनों के अन्तःकरण-हृदय
को प्रमुदित करने वाली। (१४) मिथः साकांक्षता-- पदों और वाक्यों की सापेक्षता
सहित । (१५) प्रस्तवौचित्य-- यथासमय देश-काल-भाव के
अनुकूल । (१६) तत्त्वनिष्ठता-- षट् द्रव्य और नव तत्त्व इत्यादि
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२९