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________________ निराकृतान्योत्तरत्वं, हृदयङ्गमतापि च । मिथः साकांक्षता प्रस्तवौचित्यं तत्त्वनिष्ठता ।।६७॥ अप्रकीर्णप्रसृतत्वमस्वश्लाघान्यानन्दिता। अभिजात्यमतिस्निग्ध मधुरत्वं प्रशस्यता ॥६॥ अमर्मवेधितौदार्य, धर्मार्थप्रतिबद्धता । कारकाद्य विपर्यासो, विभ्रमादिवियुक्तता ।।६।। चित्रकृत्वमद्भुतत्वं, तथानतिविलम्बिता । अनेकजातिवैचित्र्यमारोपित विशेषता ॥७॥ सत्त्वप्रधानता वर्णपदवाक्यविविक्तता । अव्युच्छित्तिरखेदित्वं, पञ्चत्रिंशच्चवाग्गुणाः।।७१॥ [श्री अभिधान चिन्तामणि देवाधिदेव काण्ड ] अर्थ-- (१) संस्कारवत्व- संस्कार वाली अर्थात् सर्व प्रकार के भाषिक दोषों से रहित । (२) प्रौदात्य- उच्च स्वर से उच्चारित - उद्घोषित । (३) उपचारपरीतता--उपचारित लौकिक दोषों से रहित । (४) मेघगम्भीरघोषत्व-मेघ के समान गंभीर घोष सहित। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२८
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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