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इन्द्र आदि करते हैं या करने की भावना-अभिलाषा रखते हैं; वह पूजातिशय कहा जाता है ।
(४) वचनातिशय-जिसके द्वारा श्रीअरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा की१ पैंतीस गुण युक्त वाणी देवों, मनुष्यों और तिर्यंचों को अपनी-अपनी भाषा में स्पष्ट समझ पड़ती है । इसलिए उस वाणी के अतिशय को वचनातिशय कहते हैं।
उपर्युक्त चार अतिशय हो मुख्य-मूल अतिशय हैं । पूर्वकथित अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्य और अपायापगमातिशयादि चार मुख्य-मूल अतिशय सब मिलकर ये बारह गुण श्रीअरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा के हैं । ___ बाह्य और प्रान्तर विश्व की विशिष्ट गुण-समद्धि का समावेश इन बारह गुणों में हो जाता है। इसलिये श्री अरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त की सम्यग् अाराधना बारह भेदों से प्रतिपादित की गई है।
9. जिनवाणी के पैंतीस गण इस प्रकार हैं
"संस्कारवत्वमौदात्यमुपचारपरीतता । मेघगम्भीरघोषत्वं, प्रतिनादविधायिका ॥६५॥ दक्षिणत्वमुपनीतरागत्वं च महार्थता । अव्याहतत्वं शिष्टत्वं, संशयानामसंभवाः ॥६६॥
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७