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इस तरह स्वाश्रयी अपायापगमातिशय जानना ।
(ब) पराश्रयी अपायापगमातिशय-जिसके द्वारा दूसरे का उपद्रव दूर होवे।
श्रीअरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा जहाँ-जहाँ विचरण (विहार) करते हैं, वहाँ-वहाँ प्रत्येक दिशा में मिल कर सवा सौ योजनपर्यन्त प्रायः रोग, मरकी, वैर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं दुर्भिक्ष आदि नहीं होते ।
(२) ज्ञानातिशय-श्रीअरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञान से युक्त होते हैं । चतुर्थ मनःपर्ययज्ञान दीक्षा अङ्गीकार करते ही प्राप्त हो जाता है । पश्चाद् तपादि साधना द्वारा चार घनघाती कर्मों का क्षय होने पर उनको लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिससे वे विश्व के सब पदार्थों को हस्त में रहे हुए आँवले की भाँति प्रत्यक्ष देखते हैं ।
- भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के समस्त भावों को यथावत् देखना, जानना और उनका देशना द्वारा यथार्थ स्वरूप निरूपण करना, यही ज्ञानातिशय कहा जाता है ।
(३) पूजातिशय-जिससे श्रीअरिहंत-तीर्थंकर भगवन्त सर्वपूज्य हैं अर्थात् जिनकी पूजा राजा, बलदेवादि, देवता
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२६