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________________ उनका आहार और निहार चर्मचक्षु वाले नहीं देख सकते हैं । मति, श्रुत और अवधि ये तीनों ज्ञान पूर्व से ही उनके साथ में रहते हैं । अलिप्त भाव से भोगते हुए भोगों को भी जैसे सर्प काँचली को त्यजता है वैसे तजकर, वार्षिक संवत्सरी दान देकर, परमपददायिनी पारमेश्वरी प्रव्रज्या [ दीक्षा ] स्वीकार कर, चतुर्थ मनः पर्यवज्ञान प्राप्त कर तप को साधना के साथ प्राते हुए अनुकूल प्रतिकूल सर्व उपसर्गों को समभाव से सहन कर, अप्रमत्तपणे चारित्र धर्म की अखण्डित आराधना के साथ शुक्लध्यान की धाराएँ चढ़ कर, चार घाती कर्मों का सर्वथा क्षय - विनाशकर, लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान और केवलदर्शन जिन्होंने प्राप्त किया ऐसे तीर्थंकर नाम कर्म उदय वाले श्री अरिहन्त भगवन्त सर्वज्ञ सर्व दर्शी बने । व्याकरण के नियमानुसार 'अहं' धातु से वर्त्तमानकालीन कर्तृ अर्थ में शतृ प्रत्यय होने से अर्हत् शब्द बनता है । उसके अरिहंत, प्ररुहंत और अरहंत ये तीन रूप बनते हैं । : (१) अरिहंत का अर्थ अरि याने शत्र तथा हंत याने हनने वाला । अर्थात् जिसने कर्मरूपी शत्रुहने हैंविनाश किये हैं वे अरिहंत कहे जाते हैं । अत्यन्त दुर्जेय भावशत्रुओं को जीतकर जिसने केवलज्ञान प्राप्त किया है । श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन - १६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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