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________________ बनने से पहले यों तो अनेक भवों से वे प्रात्मा की साधना में मग्न रहती हैं तो भी तीसरे पूर्व भव में वे अहंदादि वीश स्थानक तप की सुन्दर आराधना करके निकाचित रूप से तीर्थंकर नामकर्म बाँधती हैं । सम्पूर्ण विश्व के जीव दुःख से मुक्त हों, इस भावना से तथा जीवमात्र को धर्ममार्ग में जोड़ने के दृढ़ संकल्पों द्वारा तीसरा भव पूर्ण करके, बिचला-मध्यभव देव या नारक का भी पूर्ण करके, पुनः मनुष्य भव में उत्तम राजकुल में माता की कुक्षि में उत्पन्न होती हैं । उस समय माता चौदह महान् स्वप्न देखती है । इन्द्र महाराजा स्तुति-स्तवना करते हैं । गर्भ के प्रभाव से माता को अच्छे दोहले उत्पन्न होते हैं । वे सभी दोहले महाराजा पूर्ण करते हैं । गर्भ का काल सम्पूर्ण होते ही शुभ लग्न में माता पुत्ररत्न को जन्म देती है। सर्वत्र क्षणभर बिजली के सदृश प्रकाश होता है और त्रस-स्थावर सभी जीवों को आनंद की अनुभूति होती है । छप्पन दिग्कुमारिकाएँ अपने-अपने स्थान से आकर सूतिकर्म का कार्य करती हैं। चौंसठ इन्द्र-इन्द्राणियाँ, देवों और देवियों सहित मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाते हैं। महाराजा भी जन्मोत्सव मनाते हैं। उनकी देह में कभी रोग नहीं होता, पसीना नहीं होता, रुधिर और मांस दोनों दूध जैसे उज्जवल होते हैं, तथा श्वास और निःश्वास कमल की सौरभ जैसे सुगन्धित होते हैं। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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