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प्रमाद त्याग करके सुख के कारण भूत सद्धर्म के आचरण हेतु सम्यक् प्रकार से उद्यम अवश्यमेव करना चाहिए । सर्व तीर्थंकर भगवन्तों ने दान, शील, तप और भाव इस तरह चारों प्रकार से सद्धर्म का प्रतिपादन किया है । इन चारों में भी भाव (धर्म) की मुख्यता विशेष रूप
त्याग रूप मुक्ति का
शुद्ध भाव रहित साधन नहीं बन
में कही है । मोह-मूर्च्छा के दिया हुआ विशेष 'दान' भी सकता । विषय- विराग रूप भाव के बिना 'शील' भी इष्ट फल देने में कभी समर्थ नहीं बन सकता । अनाहारी मुक्तिपद की अभिलाषा इच्छा बिना, केवल सांसारिक - पौद्गलिक अभिलाषा - इच्छात्रों से किया जाने वाला 'तप' भी संसार के मूल को विनष्ट करने वाला नहीं बन सकता, वह केवल भव-वृद्धि का ही निमित्त बनता है । इसलिये भव्यात्माओं को अपना आत्मभाव विशुद्ध करने के लिए आत्मजागृति पूर्वक क्षण-क्षरण विशेष प्रयत्न करने चाहिए । यह ग्रात्मभाव भी मन का विषय होने से मन के अधीन है । मर्कट जैसे चंचल मन को प्रालम्बन के बिना जीतना मुश्किल है । इसलिये अनन्त उपकारी महाज्ञानी भगवन्तों ने प्रालम्बन ध्यान का सदुपदेश दिया है ।
विश्व में अनेक प्रालम्बनों के होते हुए भी आत्मविकास, प्रगति और आत्मोद्धार के बारे में सर्वज्ञ श्री तीर्थकर भगवन्तों ने श्रीसिद्धचक्र नवपद के ध्यान को प्रशस्ततम
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- १२
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