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अरिहन्त पद और द्वितीय सिद्धपद ये दोनों देवतत्त्व हैं । तृतीय आचार्यपद चतुर्थ उपाध्यायपद और पंचम साधुपद ये तीनों गुरुतत्त्व हैं । षष्ठ सम्यग्दर्शनपद, सप्तम सम्यग्ज्ञानपद, अष्टम सम्यक्चारित्र पद एवं नवम सम्यक् तपपद ये चारों धर्मतत्त्व हैं । इस प्रकार श्रीसिद्धचक्र नवपद की आराधना करने पर आराधक के लिए कोई अन्य आराधना शेष नहीं रहती । इसी कारण से शास्त्र में श्रीसिद्धचक्र नवपद की सम्यक् आराधना को इतनी महत्ता दी गई है ।
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इनमें प्रथम पाँच पद ( अरिहन्त से लेकर साधुपद तक ) गुणी अर्थात् गुणवाले हैं और अन्तिम चार पद (दर्शन से लेकर तपपद तक गुणी होते 'हैं उनमें ये गुण रहते हैं । गुणी रूप रहते हैं ।
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गुण हैं। जो अर्थात् प्रथम के
पाँच पदों में अन्तिम दर्शनादि रूप चार गुण गुण- गुणी का यह सम्बन्ध प्रति सुन्दर है ।
श्री सिद्धचक्र नवपद का स्वरूप
अनन्त पुण्य के प्रभाव से दशदृष्टान्तों से दुर्लभ ऐसा मनुष्य भव उत्तम क्षेत्र, उत्तम कुलादिक सामग्री और सद्गुरुयों का सुसंयोग प्राप्त करके दुःख के कारणभूत मद्य, विषय, कषाय, निद्रा तथा विकथा रूप पाँचों प्रकार का
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- ११