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________________ [४] उपाध्यायपद, [५] साधुपद, [६] दर्शनपद, [७] ज्ञानपद, [८] चारित्रपद एवं [६] तपपद ।। ये उक्त नव पद उत्तम तत्त्वरूप हैं। इतना ही नहीं ये जिनशासन के सर्वस्व हैं। इनका बहुमान, भक्ति और विधिपूर्वक आराधन सर्व वाञ्छित अर्थात् ऐहिकपारलौकिक सुख और परम्परा से मोक्षफल की प्राप्ति करानेवाला अद्वितीय और बेजोड़ साधन है। यथार्थ विधिपूर्वक पाराधन करने वाले भव्यजीव देवगति और मनुष्य-गति के उत्तम भवों को प्राप्त कर उत्कृष्ट नवमे भव में मोक्ष प्राप्त करते हैं। श्री सिद्धचक्र नवपद आराधना को श्रेष्ठता यह संसार दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक है। इससे बचकर मोक्षप्राप्ति का सच्चा उपाय करना भव्यत्व का परिपाक है। यह परिपाक करने के लिये जो साधन अनन्तोपकारी श्रीतीर्थकर परमात्माओं ने बतलाये हैं, उनमें श्रीसिद्धचक्र-अरिहन्तादि नवपदों का पाराधन मुख्य __ श्रीनवपद की आराधना में देव, गुरु और धर्म इन तीनों की आराधना भी आ जाती है। कारण कि प्रथम श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१०
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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