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जो सम्यग्दृष्टियों में शरोमणि है वह (जीव ) की पूर्णता होने पर मन्दिर पर कलश आरोपण के समान, मन्दिर में मूर्ति स्थापन के तुल्य, विशिष्ट जन में पुण्य की प्रगट प्रभावना के सदृश और सौभाग्य पर मंजरी के सदृश, ऐसा उद्यापन यानी उजमरगा अपनी शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक अवश्य करता है ।। १ ।।
शुद्ध तपः केवलमप्युदारं, सोद्यापनस्यास्य पुनः स्तुमः किम् ?
हृद्यं पयो धेनुगुणेन तत्तु
,
द्राक्षासिताचूर्णयुतं सुधैन ।। २ ।।
केवल शुद्ध तप भी महान है फिर भी उसका उद्यापन - उमरगा करे तब तो उस तप की कितनी प्रशंसा की जाए ? गौ दुग्ध स्वयं भी मनोहर है फिर भी उसमें यदि द्राक्षा और शक्कर का संमिलन करे तो वह दूध सुधाअमृततुल्य ही हो जाए ।। २ ।।
उपसंहार
जैनशासन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् - चारित्र एवं सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्ममय श्रीसिद्धचक्र -नवपद की आराधना मुख्य है । उसके बिना प्रात्मा को अपने कल्याण के लिये अन्य कोई उत्कृष्ट आलम्बन जगतभर में नहीं है । इसलिये आत्मकल्याण के अर्थी जीवों को सद्गुरुयों का सुसमागम करके श्रीसिद्धचक्र के अरिहन्तादि
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श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन- ३३४