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नवपदों की आराधना का विधिमार्ग जानकर अप्रमत्तपने उसका प्रासेवन अवश्य करना चाहिये। इन नवपदों में प्रथमपदे श्रीअरिहन्त भगवन्त हैं जो रागद्वेष से रहित हैं तथा ज्ञानावरगोयादि चार घनघाती कर्मों से भी रहित हैं एवं चार मूल अतिशय मिलकर बारह गरणों से समलंकृत हैं। ऐसे श्रीअरिहन्त भगवन्त की द्रव्य और भाव से तन्मयता पूर्वक भक्ति करनी ।
समस्त कर्मरहित तथा प्रष्ट गुणों से सुशोभित ऐसे श्रीसिद्ध भगवन्त, छत्तीस गुणों से विभूषित और शासन के सम्राट् ऐसे श्रीप्राचार्य भगवन्त, पच्चीस गुणों से युक्त तथा द्वादशांगी सूत्र के पाठक ऐसे श्री उपाध्याय जी महाराज एवं एक ही मोक्षमार्ग के उत्तम साधक तथा सत्तावीश गुणों सहित ऐसे साधु महाराज तथा अन्तःकरण पूर्वक जिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्त भाषित सच्चे तत्त्वों की मान्यता वह सम्यगदर्शन, उनका निर्मल बोध वह सम्यगज्ञान तथा उनकी विशुद्ध आचरणा वह सम्यग्चारित्र और जिनके योग से निज कर्म की निर्जरा हो वह इच्छानिरोध रूप सम्यकतप, ये नवपद सर्वोत्तम तत्त्व हैं। इसीलिये ये श्रीजिनेश्वर-तीर्थंकरदेव के शासन का सर्वस्व हैं। इन्हीं का बहुमान, इन्हीं की भक्ति और इन्हीं का विधिपूर्वक अाराधन सर्व प्रकार के वांछित यानी ऐहिक, पारलौकिक एवं परम्परा से मोक्षफल की प्राप्ति कराने वाले सर्वोत्कृष्ट प्रबल साधन हैं। इनकी सुन्दर आराधना द्वारा ही आत्मा का विकास होता है, इतना ही नहीं प्रात्मा मोक्ष में पहुँचता है, शाश्वत सुख का भागी बनता है, उसका भवभ्रमण सदंतर बन्द हो जाता है और मोक्ष में सादि अनंत स्थिति में वह सदा मग्न रहता है।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३३५