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देवों को भी आकृष्ट करने वाला है तथा काम के मद का दलन करने वाला है । इस कारण से तप विधेय है अर्थात् तप अवश्य करना चाहिए।
तप की प्रशंसा यस्माद् विघ्नपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते , कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति । उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वं संचयः कर्मणां , स्वाधीनं त्रिदिवं च भजते श्लाघ्य तपस्तन्न किम् ॥
जिस तप से विघ्न की श्रेणी विनाश पामती है, देवता दासपना करते हैं, काम शान्त होता है, इन्द्रियों के समूह का दमन होता है, कल्याण प्रसरता है, महा ऋद्धियां प्राप्त होती हैं, कर्मों का समूह नष्ट होता है तथा स्वर्ग और मोक्ष अपने प्राधीन होते हैं, ऐसा जो तप है क्या वह श्लाघा यानी प्रशसा करने योग्य नहीं है ? अर्थात् वह तप अवश्य ही प्रशंसनीय है।
तप की पूर्णाहुति में उद्यापन करे प्रासादे कलशाधिरोपणसमं, बिम्बे प्रतिष्ठोपमं , पुण्यश्रीस्फुटसंविभागकरणं, बिभ्रद् विशिष्टे जने । सौभाग्योपरिमञ्जरीप्रतिनिभं, पूर्णे तपस्याभिधौ। यः शकत्योद्यमनं करोति विधिना, सम्यग्दृशं सोऽग्रणीः ॥१॥
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श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३३३