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दयालुविनयापेक्षी, प्रेत्येहफलनिःस्पृहः । क्षमीनीरुका निरुत्सेको, जीवस्तपसि योज्यते ॥ ३ ॥
(श्रीप्राचारदिनकरः) जो शान्त हो, अल्प निद्रा वाला हो, अल्पाहारी हो, लालसा रहित हो, कषाय रहित हो, धीर हो, अन्य की निन्दा नहीं करने वाला हो, गुरु की सेवा में तत्पर हो, कर्मक्षय का अर्थी हो, प्रायः राग-द्वेष वजित हो, दयालु हो, विनयवंत हो, इहलोक या परलोक के फल की इच्छा बिना नि:स्पृह हो, क्षमाशील हो, रोग रहित हो, गर्व रहित हो, ऐसा जीव तपस्या करने में संलग्न होता है अर्थात् जुट जाता है ।। १-२-३ ।।
तप ही विधेय है चक्र तीर्थकरैः स्वयं निजगदे त्रैरेव तीर्थेश्वरैः , श्रीहेतुर्भवहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणम् । सद्यो विघ्नहरं हृषीकदमनं मांगल्यमिष्टार्थकृद् , देवाकर्षणमारदर्पदलनं तस्माद् विधेयं तपः ॥
तप तीर्थंकर देवों ने स्वयं किया है और इसका उपदेश भी दिया है । तप भव का विनाश करने वाला है, रोग को हरने वाला है, कर्म की निर्जरा करने वाला है, शीघ्रता से विघ्न को दूर करने वाला है, इन्द्रियों को वश में करने वाला है, मांगलिक है, इष्ट सिद्धि को करने वाला है,
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३३२