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सम्यग्दर्शनादि चारों पदों में प्रथम स्थान दर्शनपद का है। जिनभाषित तत्त्वों पर अटूट श्रद्धा रखना सो दर्शन है । श्रद्धापूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया साधक को फलवती होती है । सभी गुणों में यह दर्शन गुण एका (एकड़ा) के समान है । उसके बिना अन्य सर्व गुण एका बिना का शून्य-बिन्दुवत् है। __साधन पदों में दूसरा स्थान ज्ञानपद का है । सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की सच्ची पहिचान कराने वाला सम्यग् ज्ञान है। मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाला यही सम्यग् ज्ञान है । प्राणी मात्र को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ज्ञान की अति आवश्यकता रहती है। ज्ञान दीपक के समान स्व-पर प्रकाशक है। ___ साधन पदों में ज्ञानपद के पश्चात् तीसरा स्थान चारित्रपद का है । सम्यग्ज्ञान द्वारा पहिचाने हुए मोक्षमार्ग के साधनरूप अनेक सम्यक् अनुष्ठानों का आचरण करना वह संयम-चारित्र ही है । यह दर्शन गुण के संरक्षक (कोट के समान) का कार्य करता है ।
साधन पदों में चारित्रपद के बाद चौथा स्थान तपपद का है । यह इन्द्रिय रूपी अश्वों को काबू में रखता है तथा कर्म रूपी काष्ठ को जलाकर आत्मा को शुद्ध बनाता है । श्रीसिद्धचक्र के नव पदों में क्रमशः यह तपपद अन्तिम
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३२३