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एवं शासन के संरक्षक श्री आचार्य भगवन्त ही हैं। जिस तरह राजा अहर्निश अपनी प्रजा की चिन्ता करता है और प्रजा का संरक्षण भी करता है, उसी तरह श्री आचार्य भगवन्त भी जैनधर्म-जैनशासन की अहर्निश चिन्ता करते हैं, और उन्मार्ग से भव्यजीवों का संरक्षण भी करते हैं। इसलिये श्रीअरिहन्त भगवन्त तथा श्रीसिद्ध भगवन्त के पश्चात् शासन के सम्राट तरीके प्राचार्य भगवन्त का ही क्रम है । तीन साधक पदों में यह मुख्य पद है ।
साधक पद में दूसरा स्थान श्रीउपाध्यायजी महाराज का है । इनका मुख्य कार्य आगम के अंग एवं उपांग आदि सूत्रार्थ का अध्ययन करना और शिष्यों को करवाकर उन्हें विनयादि सिखाने का है ।
साधक पद में तीसरा स्थान श्रीसाधु महाराज का है । साधक की प्राथमिक अवस्था साधु-मुनि पद है। वह अप्रमत्त होकर और ममत्व का त्याग कर पंच महाव्रतों के पालन में सतत प्रयत्नशील होता है ।
इस तरह गुरुतत्त्व में क्रमशः प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधु-मुनि की गणना होती है। ये तीनों साधक साधन प्राप्त कर साध्य को सिद्ध कर सकते हैं। इसलिये साधन पद में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र एवं सम्यक्तप इन चारों का समावेश होता है। साधनरूप इन
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३२२