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________________ अग्नि ने जलाकर भस्मीभूत कर दिया है। पीछे जहाँ साधु-मुनिपद रूपी श्याम मेघ-बरसात बरसता रहे वहाँ पर वाचक उपाध्यायपद रूपी नील-लीले-हरे वर्ण का अंकुरा प्रगटे, क्रमशः प्राचार्यपद रूपी पीत-पीले पुष्प पा जावें, पश्चाद् अरिहन्तपद रूपी श्वेत-उज्ज्वल ऐसे प्रथम फल उत्पन्न होवे तथा अन्त में परिपक्व रक्त-लाल सिद्धपद स्वरूप अन्तिम वास्तविक स्वरूप में फल भी प्राप्त होवे । इससे श्रीसिद्धचक्र-नवपद के प्रत्येक पद के वर्ण का खयाल आ जाता है। अन्य भी कल्पना निम्नलिखित रूप में की गई है - ___ श्रीपञ्चपरमेष्ठी पैकी पंचम पद साधुपद है। साधु धर्म रूपी कृष्ण-श्याम भूमि में दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप इन चारों रूपी श्वेत-उज्ज्वल गुण बीज बोये हैं । उनको सद्भावना रूपी जल के सिंचन द्वारा क्रमश: उपाध्यायपद रूप नील-लीला अंकुर प्रकटे, प्राचार्यपद रूप पीले पुष्प पावें, अरिहन्तपद रूप प्रथम फल निपजे तथा सिद्धपद स्वरूप चरम परिपक्व फल प्राप्त होवे । इस अन्तरंग कल्पना से भी वर्गों की समझ मिल जाती है । इस प्रकार की अन्य कल्पनाएँ भी वर्ण की घटनाओं के लिये घंटा सकते हैं। सि-२१ श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३१७
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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