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________________ उत्तम भावनात्रों से पूर्ण ऐसे स्तवन के द्वारा श्रीश्रीपाल और मयणासुन्दरी ने भावपूर्वक मधुर स्वर से श्रीजिनेश्वर भगवन्त के सन्मुख ललकारा था । ' श्रीसिद्धचक्र-नवपद का समूहरूपे वर्ग विचार आत्मा सर्वदा अविनाशी, अजर और अमर है। उसको न शस्त्र भेद सकता है, न अग्नि जलाकर-भस्मीभूत कर सकती है। यही प्रात्मा परमात्मा बनने के लिये सद्धर्म की शरण ग्रहण करता है और उसके आराधन में मग्न रहता है। धर्म के प्रशस्त पालम्बन अनेक हैं। उसमें श्रीसिद्धचक्र-नवपद का पालम्बन प्रशस्ततम सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ है। श्रीसिद्ध चक्र-नवपद के समूहरूपे वर्ण विचार के सम्बन्ध में एक अन्तरंग विकास की कल्पना की गई है। वह इस तरह है - आत्मा एक उत्तम क्षेत्र है। उसमें यथाप्रवृत्ति आदि करणों द्वारा खेडारण होता है। उसमें दर्शनपद रूपी बीजजो श्वेत निर्मल है, ज्ञानपद रूपी शुभ प्रकाश में बोया हुआ है। संयम चारित्र पद रूपी दृढ़ बाड़ ने उसको सुरक्षित किया है तथा मलिन करने वाले दुष्ट तत्त्वों को तपपद रूपी श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३१६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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