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________________ करने की है। इस लोक के सुख, संपत्ति और यश-कीति की अभिलाषा-इच्छा बिना, नौ प्रकार के नियाणा बिना, समता-समभाव पूर्वक तप करने से ही उसकी सही रूप में आराधना होती है, तभी आत्मा को आत्मिक विकास आदि का सुन्दर लाभ मिलता है। श्री तपपद की आराधना करने वाला आराधक इस तरह न माने कि अरेरे ! मुझसे भूखा और प्यासा किस तरह रहा जाए ? मेरी वृत्तियों पर काबू किस तरह आ सके ? काय-कष्ट किस तरह सहा जाय ? पापों का प्रकाशन किस तरह हो सके ? इत्यादि अनेक प्रकार की विचारधारा से मुजाइ जाय और कर्म से कंटाळ गया हो। उसको अन्तर से यह लगना चाहिये कि 'कर्म का सर्वथा विनाश करने के लिये विश्व में तीव्र शस्त्र समान तप है।' बाह्य एवं अभ्यन्तर तप को अपनाकर आगे बढ़ता हुया मैं अपने कर्मों को सर्वथा दूर करने में समर्थ बनूं । कोई भी तप मेरे लिये सुकर-सुलभ एवं सुखकर है। ऐसी भावना संसारवर्ती कोई भी आत्मा अहर्निश रखकर उसे क्रियान्वित कर क्रमश: संयम साधना द्वारा आगे बढ़े, और सकल कर्म का क्षय कर शाश्वत सुख रूप शाश्वत-मोक्षस्थान को प्राप्त करे । हे संसारवर्ती जीवो ! आत्मविकास-आत्मोन्नति कारक श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३१२
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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