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________________ आराधना से श्रीवीरमती के पूर्व भव में पाराधना करने वाली श्रीदमयन्ती प्रकर्ष पुण्यवती हुई। (२) श्री कनककेतु महाराजा श्री तपपद की आराधना करके, आत्मा का कार्य साधकर तथा श्रेष्ठ तीर्थंकरपद का अनुभव कर सौभाग्यलक्ष्मी-मोक्षलक्ष्मी के महाराज बने । तपपद की आराधना के ऐसे अनेक उदाहरण-दृष्टान्त शास्त्रों में आते हैं। श्री तपपद-प्राराधक की भावना विश्व में परिभ्रमण करने वाले संसारी जीवों के आत्मप्रदेशों के साथ अनंत कर्म अनादि काल से लगे हुए हैं। उन कर्म पुद्गलों को तपाकर आत्मप्रदेशों से पृथग्-अलग पाड़ने का कार्य तप करता है । इसलिये इसको निर्जरा तत्त्व भी कहा जाता है। तप के बाह्य और अभ्यन्तर दो भेद हैं। उसमें अनशनादि छह प्रकार का बाह्य तप और प्रायश्चित्तादि छह प्रकार का अभ्यन्तर तप, दोनों मिलकर तप के बारह भेद होते हैं। आराधक को इस तप की आराधना विधिपूर्वक करनी चाहिए । जिसे करने से अपने को दुर्ध्यान न हो तथा अपनी शक्ति क्षीण न हो, उस तरह इस तपपद की आराधना श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३११
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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