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कल्पवृक्ष की तरह सुरवर और नरवर सम्बन्धी प्रानु षंगिक सम्पदा रूप जिसके पुष्प हैं तथा जिसके पसाय से 'प्रामोसही' आदि प्रमुख अनेक लब्धियाँ अवश्य ही प्रगट होती हैं ऐसे तपपद को मैं वन्दन-नमस्कार करता हूँ । ६८-६६ ।। प्रच्चंतमसज्झाई, लीला इव सव्वलोकज्जाइं। सेज्झति झत्ति जेणं, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १० ॥
सर्व लोक के अत्यन्त असाध्य कार्य भी जिसके द्वारा आसानी से सिद्ध हो जाते हैं, ऐसे तपपद को मैं वन्दननमन करता हूँ ।। १०० ।। दहिदुव्वयाइमंगल, पयथ्थसथ्थंमि मंगलं पढमं । जं वनिजइ लोए, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १०१॥
दधि-दूर्वादिक मांगलिक पदार्थों में जो लोक में प्रथम मंगलरूप गाया गया है, ऐसे तप को मैं प्रणाम करता हूँ ।। १०१ ।।
इस तरह श्री तपपद का नमस्कारात्मक वर्णन किया है।
श्री तपपद की आराधना का उदाहरण (१) श्रीसिद्धचक्र-नवपद पैकी नवें श्री तपपद की
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३१०