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जेरण खमासहिएणं, कएण कम्मारणमवि निकायारणं । जायइ खो खणेणं, तं तवपयमेस वदामि ॥ ५ ॥ ____ जिस (तप) के समता पूर्वक सेवन करने से निकाचित कर्म का भी क्षण मात्र में क्षय होता है, उस तपपद को मैं नमस्कार करता हूँ ।। ६५ ।। जेरणचिय जलोणव, जीवसुवन्नाप्रो कम्मकिट्टाइ । फिट्ट ति तख्खरणं चिय, तं तवपयमेस वंदामि ॥ ६ ॥
जिस तरह अग्नि द्वारा सुवर्ण से किट्टी आदि तत्काल फिट्टकर पृथक् हो जाते हैं उसी तरह जिसके द्वारा जीव से कर्म-मल फिट्टकर पृथक् हो जाता है ऐसे तपपद को मैं नमस्कार करता हूँ । ६६ ।। प्रासंसाइविरहिए, जंमि कए कम्मनिज्जरढाए । हुति महासिद्धिप्रो, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १७ ॥ __ कर्मनिर्जरा के लिये जिसका आशंसारहित सेवन करते हुए महासिद्धियों की प्राप्ति होती है ऐसे तपपद को मैं नमस्कार करता हूँ ।। ६७ ।। जस्स पसाएरण धुवं, हवंति नारणाविहानो लद्धीभो । प्रामोसहिपमुहानो, तं तवपयमेस वंदामि ॥ ६ ॥ कप्पतरुस्सव जस्से,-रिसानो सुरनरवरानुरिद्धीप्रो। कुसुमाइं फलं श्व सिवं, तं तवपयमेस वंदामि ॥ ६ ॥
श्रीसिमचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३०९