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________________ करने का सत्त्व खिलता है तथा तितिक्षा गुण की प्राप्ति होती है। सम्यगतप की आराधना से उपरोक्त यह सब लाभ सुलभ होता है। श्री तपपद का नमस्कारात्मक वन "श्रीनवपदप्रकरण" ग्रन्थ में श्रीनवपद पैकी नवम श्री तपपद को नमस्कार करते हुए इस प्रकार वर्णन किया गया है कि बाहिरमभितरयं, बारसभेयं जहुत्तरगुणं जं । वन्निज्जइ जिरणसमये, तं तवपयमेस वंदामि ।। ६३ ॥ क्रमशः अधिकाधिक गुणकारी बाह्य और अभ्यन्तर भेद द्वारा जिनागम में जो बारह प्रकार का तप कहा गया है, उस तपपद को मैं आदर से वन्दन करता हूँ ।। ६३ ।। तम्भवसिद्धि जाणं,-तएहि सिरिरिसहनाहपमुहेहि । तिथ्थयरेहिं कयं जं, तं तवपयमेस वंदामि ।। ६४ ॥ तद्भव सिद्धि जानते हुए भी श्री ऋषभदेव आदि तीर्थंकर भगवन्तों ने जिसका सेवन किया है उस तपपद को मैं वन्दन करता हूँ ।। १४ ।। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३०८
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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