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मोक्षमार्गः' इस रत्नत्रयी की आराधना से ही भव्यात्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस रत्नत्रयी में तीसरे चारित्र पद में तप का समावेश हो जाता है, तो भी श्रीसिद्धचक्र के नवपद में तप को स्वतन्त्र पृथग् पद दिया है। कारण कि तप से ही संयम-चारित्र शोभता है; इतना ही नहीं किन्तु तप से ही अति निबिड़ और निकाचित कर्मों का भी क्षयविनाश होता है।
जैसे आत्मा को सम्यक्त्वयुक्त ज्ञान लाभकारक होता है, सम्यग्ज्ञान युक्त संयम-चारित्र लाभकारक होता है, वैसे ही अात्मा को सम्यग्-चारित्र सहित तप लाभकारक एवं फलप्रापक होता है। चारित्र बिना का तप, ज्ञान बिना का चारित्र तथा सम्यकत्व बिना का ज्ञान, चारित्र एवं तप ये तीनों निरर्थक हैं। इसलिये चारित्र और तप को अभेद मानकर चारित्र में तप का समावेश किया है। संयमचारित्रवन्त व्यक्ति नियम से छह प्रकार के बाह्य तप और छह प्रकार के अभ्यन्तर तप दोनों में से किसी-न-किसी तप में होता है। __ आत्मा में आते हुए नूतन-नवे कर्मों को रोकने वालाअटकाने वाला चारित्र है, और भूतकाल में बँधे हुए कर्मों को जलाकर भस्मीभूत करने वाला तप है । तप की साधना-आराधना से और उसके प्रभाव से साधक कोआराधक को निम्नलिखित वस्तुओं की प्राप्ति होती है
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३०३.