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(१) कषायोत्सर्ग-कषाय का त्याग करना। अर्थात् क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप कषाय का त्याग करना वह 'कषायोत्सर्ग' कहा गया है।
(२) भवोत्सर्ग-भव यानी संसार के कारण रूप मिथ्यात्वादि बन्धहेतु का त्याग करना, वह 'भवोत्सर्ग' कहा गया है।
(३) कर्मोत्सर्ग-ज्ञानावरणीय आदि पाठों कर्मों का त्याग करना, वह 'कर्मोत्सर्ग' कहा गया है। इस तरह द्रव्यकायोत्सर्ग के चार भेद और भावकायोत्सर्ग के तीन भेद जानना। उपरोक्त ये छह प्रकार के अभ्यन्तर तप अभ्यन्तर कर्मों को तपाने वाले होने से 'अभ्यन्तर तप' कहे गए हैं।
सर्वज्ञ विभु श्रीजिनेश्वर देवों ने निज कर्मक्षय के लिये इस तप की आराधना की है, इतना ही नहीं किन्तु जगत की जनता के समक्ष इसका उपदेश भी दिया है। इस तरह भेद और प्रभेद युक्त छहों प्रकार के बाह्य तप का तथा छहों प्रकार के अभ्यन्तर तप का स्वरूप समझना।
तप के इन बारह भेदों में क्रमश: प्रधानता भोगवते हैं। अनशन से ऊनोदरी प्रधान है, ऊनोदरी से वृत्तिसंक्षेप प्रधान है तथा वृत्तिसंक्षेप से रसत्याग प्रधान है। इस तरह आगे के भेद में भी उसकी प्रधानता जाननी। इस
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२६३