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________________ (३) सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान-तेरहवें सयोगी गुणस्थानके रहे हुए केवली भगवन्त के जब मोक्षगमन का काल समीप आ जाता है तब मनोयोग और वचनयोग दोनों के रुधने-रुकने के बाद, काययोग रुंधने-रुकने के समय श्वास की सूक्ष्म क्रिया चलती होने से, उस समय के ध्यान को तीसरा 'सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान' कहा है। (४) व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान-चौदहवे अयोगी गुणस्थान के शैलेशी अवस्था में सूक्ष्मक्रिया का भी विनाश होता है और वहाँ से पुनः ध्यान से गिरना भी नहीं होता है। इससे उस अवस्था में वर्तता जो ध्यान वह 'व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान' कहा गया है । ' (यह चौथा शुक्लध्यान पूर्व प्रयोग से होता है । जिस तरह दण्ड द्वारा चक्र घुमाकर दण्ड निकालने के बाद भी चक्र घूमता ही रहता है, उसी तरह इस ध्यान को भी समझ लेना ।) यह ध्यान तप एक ऐसे दावानल के समान है जिसमें कर्मरूपी ईंधन-काष्ठ अन्तर्मुहूर्त मात्र में भी जल कर भस्मीभूत-खाक हो जाता है। इस ध्यान का विषय अतिगहन और अनुभवगम्य है । (६) कायोत्सर्ग तप-कायादिक के व्यापार का उत्सर्ग यानी त्याग । अर्थात् एक स्थान में स्थिर होकर काय श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२६१
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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