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रह कर वह ध्यान अन्य द्रव्य गुण या पर्याय में चला जाता है, इसलिये पृथक्त्व कहा है । 'वितर्कः श्रुतम्' इस वचन से वितर्क यानी श्रुतज्ञानी को ही (विशेषतः पूर्वधर लब्धिवन्त को ) यह ध्यान पूर्वगत श्रुत का उपयोगवन्त होता है, इसलिये वितर्क कहा है ।
एक योग से दूसरे योग में, एक अर्थ से दूसरे अर्थ में और एक शब्द से दूसरे शब्द में या शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में, इस ध्यान का विचार यानी संचार होता है, इसलिये 'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ति' इस वचन से इसे सविचार कहा है ।
सारांश यह है कि - द्रव्यास्तिक इत्यादि नयों द्वारा एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश आदि पर्यायों के चिन्तवनरूप जो ध्यान, वह पहला 'पृथक्त्व वितर्क सविचार शुक्लध्यान' कहा जाता है । ( यह ध्यान श्ररिणवन्त व्यक्ति को आठवें गुणस्थानक से लगाकर ग्यारहवें गुणस्थानक पर्यन्त होता है ।)
(२) एकत्व वितर्क विचार शुक्लध्यान- पूर्वोक्त प्रथम भेद से विपरीत लक्षरणवन्त वायु रहित दोपकवत् निश्चल एक ही द्रव्यादिक के चिन्तवन वाला जो ध्यान, वह दूसरा 'एकत्व वितर्क विचार शुक्लध्यान' है । ( इस ध्यान के अन्त में केवलज्ञान उत्पन्न होता है । )
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २६०