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सुसिद्धान्त या सद्ग्रन्थों का श्रवण, मनन और निदिध्यासने करना वह 'स्वाध्याय तप' कहा जाता है। उसके भी पांच भेद हैं-१. वांचना, २. पृच्छना, ३. परावर्तना, ४. अनुप्रेक्षा और ५. धर्मकथा ।
(१) वांचना-सूत्र को पढ़ना और पढ़ाना, वह 'वांचना स्वाध्याय तप' है ।
(२) पृच्छना-प्रश्न करना यानी शंका करना अर्थात् संदेह-संशय पूछना। सूत्रार्थ पढ़ते हुए और पढ़ाते हुए जो संशय-संदेह होते हैं, उनको दूर करने के लिये या सूत्रार्थ को दृढ़ करने के लिये अन्य को प्रश्नरूपे पूछना, उसे 'पृच्छना स्वाध्याय तप' कहा है ।
(३) परावर्तना-पुनरावर्तन करना अर्थात् प्रावृत्ति करनी। पूर्वे पढ़े हुए सूत्रार्थ का विस्मरण न हो जाय, इसलिये उसकी पुनरावृत्ति करना, वह 'परावर्तना स्वाध्याय तप' है।
(४) अनुप्रेक्षा-तत्त्वचिन्तन करना। अर्थात् सूत्रार्थ का मन से मनन-रटन करना या अभ्यास करना वह 'अनुप्रेक्षा स्वाध्याय तप' कहा है ।
(५) धर्मकथा-विनिमय करना। अर्थात् धर्म का
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२८६