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सदुपदेश देना या श्रवण करना, वह 'धर्मकथा स्वाध्याय तप' है।
उपरोक्त पांचों प्रकार का स्वाध्याय तप महान् निर्जरा का यानी कर्मक्षय का कारण है। महान् कर्म की निर्जरा करने वाले इस स्वाध्याय तप के वाचनादि पांच भेद अति प्रसिद्ध हैं। मन्त्र जाप भी एक प्रकार का स्वाध्याय होने से उसका भी समावेश इसी स्वाध्याय तप में हो सकता है ।
(५) ध्यान तप-मन की एकाग्रता। वह शुभ अध्यवसाय पूर्वक हो तो ही उसका अभ्यन्तर तप में समावेश होता है। इस सम्बन्ध में शास्त्र में कहा है किअंतोमुत्तमित्तं चित्तावत्थारणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थारण झारणं जोगा निरोहो जिरणाणं तु ॥ १॥
किसी भी प्रकार के एक ही विषय की विचारणा में मन को अन्तर्मुहूर्त तक एकान बनाना, वह ध्यान छद्मस्थों का कहा जाता है तथा सर्वज्ञ ऐसे केवलज्ञानी के ध्यान को योगनिरोध अर्थात् मन-वचन-काया की प्रवृत्ति का निरोध कहा है ।। १ ॥
ध्यान के दो भेद हैं। शुभध्यान और अशुभध्यान । उसमें शुभध्यान अभ्यन्तर तप स्वरूप कर्मनिर्जरा का कारण होने से उसको तप की कोटि में गिना है तथा
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२८७