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१०. साधर्मिक । इन दसों की निराशंसभावे तथा कर्मक्षय के हेतु पूर्वक सेवाशुश्रूषा करनी वह वैयावृत्य नाम का अभ्यन्तर तप है, जो धर्मकृत्य का सार है । इसके सम्बन्ध में शास्त्र में कहा है कि
धर्मकृत्येषु सारं हि वैयावृत्यं जगुजिनाः । तत् पुनर्लानसम्बन्धि, विना पुण्यं न लभ्यते ।। १ ।।
देवों ने धर्मकृत्य- धर्मकार्य का सार ग्लान- मांदा-अशक्त सम्बन्धी वैयावृत्य, बिना प्राप्त नहीं होती ।। १ ।।
वैयावृत्य यानी वैयावच्च गुण को सर्वज्ञ श्रीजिनेश्वर कहा है । उसमें भी जीव को पुण्य प्रकर्ष
यह वैयावच्च गुण अप्रतिपाती है जिसके सम्बन्ध में कहा है कि
वेप्रावच्चं निययं करेह उत्तमगुणे धरंतारणं । सव्वं किल पडिवाइ वेप्रावच्चं प्रपडिवाइ ॥ २ ॥
उत्तम गुणों को धारण करने वाले ऐसे जीवों की वैयावच्च - सेवा अहर्निश करनी चाहिए । कारण कि जब अन्य ज्ञानादि निखिल गुरण प्रतिपाती हैं तब वैयावच्च - सेवा गुण प्रतिपाती है ।। २॥
( ४ ) स्वाध्याय तप-स्वाध्याय यानी शास्त्रों का पठनपाठन । आत्मा की आध्यात्मिक प्रगति हो ऐसे धार्मिक सूत्र,
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श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- २८५