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४. एक मांडली में गोचरी के व्यवहार वाले । ५. चन्द्रकुल, नागेन्द्रकुल इत्यादि । ६. आचार्य का समुदाय । ७. सर्व साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका ।
ऊपर विनय तप का पांच प्रकार से प्रतिपादन किया। यह विनय तप सात प्रकार से भी कहा जाता है। इसमें दर्शन-ज्ञान-चारित्र विनय उपरोक्त माफिक समझना। तत् पश्चात् ४-५-६ योगविनय-प्राचार्य महाराजादि प्रति अकुशल, अशुभ मन-वचन-काया का रोध कर, कुशल शुभ मन-वचन-काया की प्रवृत्ति जो करनी वह तीन प्रकार का 'योगविनय' कहलाता है । तथा सातवाँ औपचारिक यानी उपचारविनय तो ऊपर की भांति समझ लेना ।
(३) वैयावत्य तप-व्याधि-रोग-परीषह और उपसर्गउपद्रव में अपनी शक्ति के अनुसार उसका प्रतिकार करना
और आहार-पानी, वस्त्र-पात्र आदि देना तथा अंग शुश्रूषादिक से अनुकूलता कर देनी वह 'वैयावृत्य तप' है। उसके दस भेद इस तरह हैं
१. प्राचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, ४. तपस्वी, ५. ग्लान (मांदा या अशक्त), ६. शैक्ष-शैक्षिक (नवदीक्षित), ७. कुल, ८. गण, ६. संघ, और
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२८४