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________________ (१०) पर्युपासना - जब ( गुरु प्रादि वडील) बैठे हुए हों तब वैयावच्च-सेवा करनी वह ' पर्युपासना शुश्रूषा दर्शन विनय' है । दर्शन विनय तप के दूसरे भेद ' अनाशातना दर्शनविनय' का स्वरूप निम्नलिखित अनुसार है । इसके पैंतालीस (४५) या बावन (५२) भेद हैं (१) तीर्थंकर, (२) धर्म, (३) श्राचार्य, (४) उपाध्याय, (५) स्थविर, (६) कुल, (७) गण, (८) संघ, ( 8 ) सांभोगिक (एक मांडली में गोचरी करने वाले), और (१०) समनोज्ञ साधर्मिक ( समान सामाचारी वाले), ये दस तथा पाँच ज्ञान, कुल मिलकर इन पन्द्रह की आशातना का त्याग तथा इन पन्द्रह का भक्ति- बहुमान और इन पन्द्रह की वर्णसंज्वलना (गुण की प्रशंसा), इस तरह ये पैंतालीस [१५ + १५ + १५ =४५ ] भेद अनाशातना दर्शनविनय के जानना । अथवा ( १ ) तीर्थंकर, (२) सिद्ध, (३) कुल, ( ४ ) गरण, (५) संघ, (६) क्रिया, (७) धर्म, (८) ज्ञान, ( ९ ) ज्ञानी, (१०) प्राचार्य, (११) स्थविर, ( १२ ) उपाध्याय और (१३) गरणी, इन तेरह पूज्य स्थानों का (१) अनाशातना, (२) भक्ति, (३) बहुमान और (४) गुणप्रकाशन, इन चारों प्रकारे विनय होने से अनाशातना दर्शन विनय के बावन (५२) भेद भी समझने चाहिये | श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - २८१
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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