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शुश्रूषा दर्शनविनय' कहा जाता है ।
(२) अभ्युत्थान-आसन से खड़े हो जाने को 'अभ्युत्थान शुश्रूषा दर्शनविनय' कहा है।
(३) सन्मान-वस्त्रादिक देने को 'सन्मान शुश्रूषा दर्शनविनय' कहा है।
(४) प्रासनपरिग्रहण-बैठने के लिये आसन लाकर के बैठने के लिये कहना यह 'पासन परिग्रहण शुश्रूषा दर्शनविनय' है।
(५) प्रासनप्रदान-पासन को व्यवस्थित रूप से गोठव देना वह 'पासनप्रदान शूश्रूषा दर्शनविनय' है ।
(६) कृतिकर्म-वन्दना करना वह 'कृतिकर्म शूश्रूषा दर्शनविनय' है।
(७) अंजलिग्रहण-दोनों हाथों को जोड़ना वह 'अंजलिग्रहण शूभूषा दर्शनविनय' है।
(८) सन्मुखागमन-जब (गुरु आदि वडील) पधारें तब सन्मुख-सामने जाना वह 'सन्मुखागमन दर्शनविनय' है ।
(९) पश्चाद्गमन-जब (गुरु आदि वडील) जायें तब वलाने के लिये जाना वह 'पश्चाद्गमन शुश्रूषा दर्शनविनय' कहा है।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२८०