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वर्ष पर्यंत गच्छ के बाहर रहना पड़े, वेष पलटा करना पड़े, प्रायश्चित्त तप वहन करना पड़े तथा महान् शासन की प्रभावना करने के पश्चात् प्रान्ते पुनः दीक्षा लेकर गच्छ में पाने का रहता है। (यह प्रायश्चित्त मात्र अपराधी ऐसे प्राचार्य महाराज को होता है, अन्य को नहीं ।) इस तरह अभ्यन्तर प्रायश्चित्त तप के दस भेदों का संक्षिप्त स्वरूप जानना। अभ्यन्तर तपों में प्रायश्चित्त, तप का प्रथम भेद है।
(२) विनय तप-मोक्ष के साधनों के प्रति अन्तःकरण से बहुमान रखना, उसके सम्बन्ध में बाह्यप्रतिपत्ति रूप शिष्टाचार का परिपालन करना तथा उसके प्रति की अाशातना को वर्जना अर्थात् नहीं करना, वह 'विनय तप' कहा है। इसके पाँच भेद हैं-(१) दर्शनविनय, (२) ज्ञानविनय, (३) चारित्रविनय, (४) तपविनय और (५) औपचारिक विनय ।
(१) दर्शनविनय-देव और गुरु का औचित्य (जो) साचवना वह 'दर्शनविनय तप' कहा गया है। इस दर्शन, विनय तप के भी दो भेद हैं-शुश्रूषा दर्शनविनय और अनाशातना दर्शनविनय । उसमें शुश्रूषा दर्शनविनय दस प्रकार का है
(१) सत्कार-स्तवना-वन्दना करने को 'सत्कार
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७६