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करने वाले व्यक्ति को मूल से पुनः महाव्रत उच्चराते हैं। अर्थात् उसको पुनः चारित्र दिया जाता है ।
(६) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त-किये हुए अपराध का प्रायश्चित्त जहाँ तक नहीं किया जाय वहाँ तक पुनः महाव्रत नहीं उच्च राना, वह 'अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तप' कहा जाता है। इसमें किये हुए अपराध का प्रायश्चित्त नहीं करे तब तक उस व्यक्ति को पुनः महाव्रत नहीं उच्चराना । (यह प्रायश्चित्त अपराधी ऐसे प्राचार्य महाराज को या उपाध्यायजी महाराज को ही होता है, अन्य-दूसरे को नहीं ।)
(१०) पाराञ्चित प्रायश्चित्त-सर्वज्ञ विभु श्री जिनेन्द्र देव की या जिनप्रवचन की आशातना करने से, चारित्रदीक्षा में रही हुई साध्वीजी का शीलभंग करने से, राजा की रानी आदि के साथ अनाचार-सेवन से तथा मुनि या नृप के विनाश रूप, शासन के महा उपघातक पाप के दण्ड हेतु जघन्य से छह मास तक और उत्कृष्ट से बारह वर्ष तक गच्छ बाहर निकल कर के वेष पलटा कर तथा प्रायश्चित्त तप वहन कर और महान् शासन की प्रभावना करने के पश्चात् पुनः संयम (चारित्र-दीक्षा) लेकर गच्छ में जो पाना वह 'पाराञ्चित प्रायश्चित्त' कहा जाता है ।
इसमें किये हुए अपराध के दण्डरूपे उत्कृष्ट से बारह
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७८