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अथवा तपवित हो, जो ग्लान अथवा वृद्ध हो, तप में अश्रद्धावान् व्यक्ति को बारबार तप का प्रायश्चित्त आने पर भी तप से जो ठकता न हो, कारण बिना भी पुनः पुनः अपवाद का जो सेवन करता हो, अथवा छह मास के उपवास जितना उत्कृष्ट तप करने पर भी अधिक तप के योग्य जिसने सेवन किया हो । ऐसी आत्माओं को तप का प्रायश्चित्त पाता हो तो भी शास्त्रोक्त विधिपूर्वक जो दीक्षा पर्याय का छेद करने में आता है, उसे 'छेद प्रायश्चित्त' कहा है। उसमें उपरोक्त कारणों से अमुक प्रमाण में दीक्षा का पर्याय न्यून कराता है अर्थात् दीक्षाकाल कम होता है।
.. (८) मूल प्रायश्चित्त-संकल्पपूर्वक पंचेन्द्रिय प्राणी का वध अर्थात् विनाश करने में, 'अमुक स्त्री की सती तरीके प्रसरी हुई ख्याति-प्रसिद्धि को नष्ट करूं" ऐसी बुद्धि से सती स्त्री का संभोग करने में, महा असत्य, चोरी, परिग्रहादिक का बार-बार सेवन करने में, या हिंसा प्रादि पाँचों आस्रव करने में या उनकी अनुमोदना में, मंत्र प्रास्रव कराने में या उसकी अनुमोदना में तथा मंत्र या औषधि आदि द्वारा गर्भाधान, गर्भपातन के कारण संयम-दीक्षा को छोड़कर आये हुए व्यक्ति को पुनः महाव्रत का जो स्वीकार कराना, वह 'मूल प्रायश्चित्त तप' कहा है। इसमें महान् अपराध
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७७