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________________ 'प्रायशः कर्मलिनं जीवं चित्तं वा शोधयतीति प्रायश्चित्तम्' अपने से बने हुए अपराधों को शुद्ध करना सो 'प्रायश्चित्त' कहा जाता है। अथवा प्रायः करके पापमलिन ऐसे जीव को-मन को जो शुद्ध करता है वह भी 'प्रायश्चित्त' कहा जाता है। शास्त्र में दश प्रकार के प्रायश्चित्त प्रतिपादित किये गये हैं। इस सम्बन्ध में कहा है कि"पालोयणं१ पडिकमरण२ मीस ३ विवेगे४ तहा विउस्सग्गे५ । तव६ छे अ७ मूल८ अरणवट्ठाए अपारंचिए१० चेव ।।" (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) मिश्र, (४) विवेक, (५) कायोत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (8) अनवस्थाप्य और (१०) पाराञ्चित । इन दश प्रकार के प्रायश्चित्त का संक्षिप्त स्वरूप इस तरह है-- (१) पालोचना प्रायश्चित्त-किये हुए पापों (गुनाहोंभूलों) की पूज्य गुरुमहाराजादि के समक्ष शास्त्रोक्त विधि मुजब जो रजुआत करनी, सो 'मालोचना प्रायश्चित्त' है । किसी जीव विशेष के पाप की शुद्धि इस आलोचना से ही हो जाती है। (२) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त-ईर्यासमिति आदि में सहसात्कार से अनाभोग यानी अनुपयोग हुआ हो, मार्ग में श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७४
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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