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________________ व्यापार से पीछे हटना तथा कुशलयोग की उदीरणा करना सो 'योगसंलीनता तप' है । (४) विविक्तचर्यासलीनता-स्त्री, पशु और नपुंसक इत्यादि संसर्गवाले स्थानों का त्याग कर के सभा, शून्यघर, देवकुळ, उद्यान-बगीचा या पर्वत की गुफा आदि प्रमुख स्थान में रहना, उसे 'विविक्तचर्यासलीनता तप' कहा जाता है। उपरोक्त अनशनादि छह प्रकार का तप बाह्य तप कहा जाता है। ___ अब अभ्यन्तर तप का वर्णन किया जाता है। अभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं"पायच्छित्तं विरो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो । झाणं उस्सग्गोऽविय, अभितरो तवो होइ ॥" (नवतत्त्वप्रकरण, गाथा-३६) (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) कायोत्सर्ग । ये छह अभ्यन्तर तप हैं। (१) प्रायश्चित्त तप-इधर 'प्रायः' विशेष से, 'चित्त' की विशुद्धि जो करे सो प्रायश्चित्त ऐसा शब्दार्थ जानना । प्रायश्चित्त यानी पाप का विनाश करने वाली क्रिया श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७३
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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