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वीतराग - श्रीतीर्थंकरदेवों ने संलीनता तप कहा है। संलीनता तप के चार भेद हैं। इस सम्बन्ध में कहा है कि--
"इन्द्रियादि-चतुर्भेदा, संलीनता निगद्यते । बाह्यतपोऽन्तिमो भेदः, स्वीकार्य स्कंदकर्षिवत् ॥"
(१) इन्द्रियसंलीनता, (आदि शब्द से) (२) कषाय संलीनता, (३) योगसंलीनता और (४) विविक्तसंलीनता। बाह्यतप के अन्तिम भेद संलीनता तप के ये चार भेद कहे जाते हैं। इन्हें स्कन्दक ऋषि की भाँति स्वीकार करना।
उक्त श्लोक में वरिणत संलीनता तप के चारों भेदों का स्वरूप इस तरह है।
(१) इन्द्रियसंलीनता-अप्रशस्तपने प्रवर्तती ऐसी इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से जो पीछे वालनी वह 'इन्द्रियसंलीनता' कही जाती है ।
(२) कषायसंलीनता-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को उदय में न आने देना तथा जो उदय में आये हुए हों उनको क्षमादि द्वारा निष्फल कर देना सो 'कषाय संलीनता तप' है ।
(३) योगसंलीनता-मन, वचन और काया के अशुभ
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७२