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तथा दाढ़ी-मूंछ के बालों का लोच करना, शियाला की ठंडी और उन्हाला की गरमी सह लेना, मच्छर और डाँस
आदि के परीषहों तथा उपसर्गों-उपद्रवों को भी सहना; इत्यादि शरीर को कष्ट देने रूप क्रियाएँ कायक्लेश तप के अन्तर्गत गिनी जाती हैं।
पंचाग्नि तप तपना, वृक्ष की डाली के सहारे द्वारा सिर नीचे और पाँव ऊपर कर लटकना, ठंडे पानी में खड़े रहना, केश-नख बढ़ाना इत्यादि अज्ञान कायकष्ट का समावेश इस कायक्लेश तप में नहीं होता। कारण कि उसमें जीवों की हिंसा होती है और संयम के साधनरूप इन्द्रियों आदि की भी हानि सम्भवती है।
' (६) संलीनता तप-संलीनता यानी संगोपन (संकोचना) अर्थात् काया का, वाणी का और मन का संकोच करना वह 'संलीनता तप' कहा जाता है। इस सम्बन्ध में शास्त्रकार महर्षियों ने कहा है कि
"इंदिन-कसाय-जोगा, पडुच्च संलोरणया मुण्यव्वा । तह य विवित्त-चरिया पण्णत्ता वीरायेहि ॥"
इन्द्रिय, कषाय और योग का प्राश्रय न करके तथा विविक्तचर्या यानी स्त्री, पशु और नपुंसक के निवास से रहित ऐसे एकान्त विशुद्ध स्थान में जो निवास करना, उसको
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७१