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________________ चलते-चलते बातचीत की हो, साधु महात्माओं को अनुचित और गृहस्थजनों को उचित ऐसी भाषा बोलने में जो प्रमादाचरण होते हुए हिंसा आदि के दोष लगे हों, इच्छाकार इत्यादि समाचारी का सम्यग् पालन न हुआ हो, ऐसे दोषों में पूज्य गुरुमहाराज के समक्ष इन दोषों का कथन किये बिना भी 'मिच्छामि दुक्कडं' यानी 'मिथ्यादुष्कृत' देते हुए जो शुद्धि होती है, वह 'प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त' तप कहा जाता है। उसमें लगे हुए दोष-पाप पुनः नहीं करने के लिये 'मिच्छामि दुक्कडं' दिया जाता है। (३) मिश्र प्रायश्चित्त-इष्टविषयों का अर्थात् अपनी मन-गमती वस्तुओं का अनुभव करने के पश्चात्, उसके वियोग में 'मैंने राग या द्वषादि किया था कि नहीं' इस तरह का जो संशय उत्पन्न होता हो तो उस दोष का पूज्य गुरुमहाराज के समक्ष कथन करके, गुरु की आज्ञानुसार 'मिच्छामि दुक्कडं' देना अर्थात् मिथ्यादुष्कृत कहना, वह 'मिश्र प्रायश्चित तप' कहा गया है। इसमें किये हुए दोषों-पापों का कथन गुरु के समक्ष किया जाता है और साथ में 'मिच्छामि दुक्कडं' भी दिया जाता है। (४) विवेक प्रायश्चित्त-भिक्षा में प्राप्त अशुद्ध (ऐसे) अन्न-पानादि को शुद्ध जान के ग्रहण करने के पश्चात् लगा श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२७५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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