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का समूह ताप पामता है यानी शोषाइ जाता है उसको 'तप' कहा जाता है इस बात की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक भी कर रहा हैरसरुधिर पांस मेदोऽस्थिमज्जाशुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि चाशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ॥१॥
अर्थ-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र (वीर्य) ये सप्त धातुयें तथा अशुभ कर्म जिससे ताप पामते हैं अर्थात् बाह्यदेह और अभ्यन्तर कर्म को जो तपाता है वह तप है। इसका तात्पर्य यही है कि शरीर और मन की जो शुद्धि करे वही तप कहलाता है। तप की यही व्याख्या वास्तविक और पूर्ण है। किसी ने किसी व्रत को, किसी ने वनवास को, किसी ने कन्दमूल के भक्षण को, किसी ने सूर्य की आतापना को, तो किसी ने केवल देहदमन को ही तप माना है, ऐसी मान्यताएँ उचित नहीं हैं ।
तप की महत्ता जगत में तप की महत्ता सभी धर्मों-मतों ने स्वीकार की है। उनमें प्रथम स्थान जैनधर्म का है। जैनशास्त्र में स्थले-स्थले तप की महत्ता वरिणत है। इतना ही नहीं किन्तु शास्त्रकार भगवन्तों ने प्रसगे-प्रसंगे तप के अनेक प्रकार से गुण गाये हैं। कहा है कि
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२५५